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भटकती आत्मा भाग - 25





भटकती आत्मा भाग – 25
 

  सातवें दिन मैगनोलिया को नींद की दवा नहीं दी गई थी। उस दिन वह सारा दिन पलंग पर पड़ी छत को निहारती रही। आठवें दिन उसने पिता से कहा -  "पापा मैं घर चलूंगी"।
डॉक्टर ने उसे अनुमति दे दी और आठवें दिन वह बंगले पर आ गई। दिखने में मैगनोलिया नॉर्मल हो गई थी,लेकिन अब वह पहले वाली मैगनोलिया नहीं रही थी। उसे देख कर ऐसा लग रहा था जैसे भीतर से वह मर चुकी हो,अब संसार की कोई खुशी,उसके भीतर किसी प्रकार की उत्सुकता न जगा सकेगी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसकी पांचों इंद्रियाँ बेकार हो चुकी हों। उसे अब न खुशबू का अहसास था,न रंग उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते थे । कोई चीज उसके शरीर को छूती तो उसे महसूस नहीं होता,ऐसा लगता है जैसे उसका पूरा शरीर पक्षाघात से सुन्न हो चुका है। उसके लिए खाने में न स्वाद रहा था न आनंद। आवाजें उसके कानों से टकराकर एक गूंज सी पैदा करतीं,और उसे लगता जैसे वह मरुस्थल में खड़ी हो,और कहीं किसी स्थान पर कुछ आवाजें पैदा हो रही हों,जिन से उसका कोई संबंध नहीं।
  एक प्रकार से वह संसार की वास्तविकताओं से बिल्कुल कट चुकी थी। सपने में चलने वाले लोगों की तरह ही वह अपना हर काम करती थी।  कभी-कभी उसे यही एहसास होता जैसे वह सपना देख रही हो,और बहुत जल्द उस सपने से जाग उठेगी।
   दसवें दिन कलेक्टर साहब ने उसके सामने बैठकर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा -  "डियर डॉटर,तुम्हें पता है एक महीने बाद तुम्हारा बर्थ डे है"!
  "क्या ? मेरा बर्थडे,फिर आप कहना क्या चाहते हैं"?-  टेप रिकॉर्डर की तरह पूछा उसने, जिसमें उसकी सोच का कोई  दखल न था।
  "मैं तुम्हारा बर्थडे बहुत धूमधाम से मनाना चाहता हूं,फिर उसी दिन तुम्हारा इंगेजमेंट भी मिस्टर जॉनसन के साथ कर देना चाहता हूं। उसके पिता तीन-चार दिनों में आने ही वाले हैं,फिर वे ही फैसला करेंगे कि शादी का दिन कब रखा जाए"।
मैगनोलिया हर समय ऐसे रहती थी जैसे किसी ने उसे हिप्नोटाइज कर रखा हो। वह उठते हुए बोली  -  "पापा मैं अब मर चुकी हूं,अब मेरे मन में कोई इच्छा नहीं बची है। अगर कुछ है तो केवल यह कि गॉड मुझे उठा ले। मेरी इस जिंदा लाश से यदि कोई शादी करना चाहता है,और आपके मन को शांति मिल सकती है तो जहां आप चाहें मेरी शादी कर दें। अब मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह मिस्टर जॉनसन है या कोई राक्षस। लेकिन जो भी मुझसे शादी करना चाहे उसे आप यह जरूर बता दें कि मैं अंदर से मर चुकी हूं। अगर वह एक चलती फिरती लाश से शादी करने पर राजी हो जाए तो मुझे कोई आपत्ति नहीं"।
  यह कहकर वह यांत्रिक मनुष्य (रोबोट) की तरह चलती हुई अपने कमरे में चली गई। मैगनोलिया के इस फैसले पर कलेक्टर साहब ने संतोष की सांस ली। उनको अपना वचन पूरा होता हुआ प्रतीत हुआ । अब उनको समाज में सिर नीचा करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । अपनी योजना के सफल होने पर भी उन्हें मैगनोलिया की ऐसी स्थिति पर बहुत दु:ख पहुंचा था,कि बेटी अब पहली वाली नहीं रह गई थी। उसकी चंचलता तो मानो किसी ने छीन ही लिया था। परन्तु शादी के लिए वह तैयार हो गई थी,इसी बात का उन्हें संतोष था।
जॉनसन भी उनकी बातों को सुनकर कुछ खुश ही हुआ था। वह सोच रहा था कि मैगनोलिया दिल टूटने का नाटक रचा रही है। उसने निर्णय लिया था कि -
  "शादी के बाद गिन-गिन कर एक-एक बात का बदला लूँगा। उसके शरीर से भरपूर खेलूंगा, फिर बासी खाना समझकर छोड़ दूंगा। एक बार हाथ तो लग जाए"।

       -    ×    -    ×    -    ×    -

सपेरों की बस्ती जमुनाबाड़ी का सरदार मनकू माँझी से बहुत खुश था,क्योंकि उसके कारण उसकी बेटी की खुशियाली लौट आई थी । एक हादसे में उसका बेटा बारह वर्ष की आयु में ही मौत के मुंह में जा चुका था। धन्नो की बाल सुलभ  नादानी के कारण ही ऐसा हुआ था। तब से वह दु:खी रहने लगी थी। अपने भाई की मृत्यु का कारण वह स्वयँ को समझ रही थी। अब जब मनकू माँझी ने उसे बहन कहा था,तब उसको अपना भाई याद आ गया था। अब इस भाई को वह खोना नहीं चाहती थी,जो अनायास ही उसकी बस्ती में आ गया था। जिसे ईश्वर ने शायद उसके लिये ही भेजा था । जो सदा गंभीर और दु:ख का काला बादल अपने चेहरे पर समेटे रहती थी,वही धन्नो अब प्रसन्न रहने लगी थी । इसका कारण एक दिन उसने अपनी पुत्री से जानना चाहा, तब उसने हंसते हुए कहा - 
   "बाबा मेरा खोया हुआ भाई लौट आया है,अब मैं अपने भाई की छवि इस मनकू माँझी में पाती हूं,और खुश हूँ। आप उसको कभी बस्ती से दूर नहीं जाने दें बाबा"।
  सरदार यह सुनकर गदगद हो उठा था, परन्तु कुछ ही क्षणों बाद वह गंभीर हो गया था। कितने दिन वह मनकू माँझी को यहां रोके रखेगा ! और वह रुकने भी क्यों जाएगा ! लेकिन धन्नो को कैसे समझाये ! अपने बेटे की असामयिक मृत्यु से दु:खी होकर एक दिन धन्नो की मां भी भगवान की प्यारी हो गई थी। किसी तरह आठ वर्ष की धन्नो को बहला-फुसलाकर सरदार ने सम्भाले रखा। अब पुनः मनकू माँझी जब चला जाएगा,तब कैसे समझा पायेगा वह धन्नो को"? 
  इसी सोच विचार में सरदार अपना सुध बुध खोया सा पड़ा था कि एक आवाज आई  - 
   "बाबा आपने मुझे जीवन दिया, इसके लिए मैं सदा आपका ऋणी रहूंगा। अब मुझे कई दिन यहां रहते हो गए,अब आप मुझे जाने की अनुमति दें"। 
सरदार का ध्यान भंग हो गया था। उसने कहा  -  
" बेटा,मुझे कोई अधिकार तुमको रोकने का तो है नहीं,फिर भी कल तक यदि रुक सको तो उपकार मानूँगा। धन्नो तुम्हें देख कर भाई का दु:ख भुला चुकी है। उसकी प्रसन्नता वापस लौट आई है। वह तुम में अपने मृत भाई की छवि देखती है,और खुश है। क्या तुम उसको दु:खी करना चाहोगे ? पता है कल कर्मा का पर्व है। यह पर्व भाई के लिए ही मनाया जाता है l तुम्हारे चले जाने से वह कितनी दु:खी हो जाएगी,यह तुम सोच सकते हो"।
  "बाबा आप उपकार की बात न कहें। आप तो बस आदेश दें। आपका आदेश है तो मैं कल तक रुक जाऊंगा"  - मनकू माँझी ने कहा।
  सरदार प्रसन्न हो गया। उसने सोचा कल के बाद वह धन्नो को समझायेगा,तथा मनकू माँझी के कुछ दिन बाद पुनः लौट आने की बात बतायेगा। मनकू माँझी नहीं लौट पाये तो झूठी आस ही सही,वह झूठी दिलासा ही देगा। धन्नो तो अब समझदार हो गई है,पुनः हरदम आते रहने की बात सुनकर आश्वस्त हो जाएगी। लेकिन सरदार को क्या पता था कि भाग्य कैसा खेल भविष्य में खेलने वाला है।
               
                                   क्रमशः
            निर्मला कर्ण



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